कुछ समय पूर्व पत्रों में पढ़ा था, कि मध्य प्रदेश शासन प्रति वर्ष हमीदिया अस्पताल में गरीबों के इलाज के लिये हृदय रोग विभाग को 1 करोड़ 60 लाख रु. की राशि आबंटित करता है। प्रति रोगी एन्ज्योग्राफी कराने का खर्च 8 हजार रु. आता है। कुछ माह में ही ये एक करोड़ 60 लाख रु. समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि आने वाले रोगियों की तुलना मे राशि बहुुत कम है। यदि वोट की राजनीति की दृृष्टि से देखा जाए तो विपक्षी दल इस राशि को बढ़ाने की मांग करेंगे और सत्ता दल इस राशि को बढ़ा कर इस बात का प्रचार करते हुए वोट बटोरेगा। यह भी तभी सम्भव है जब वित्त विभाग इस राशि को बढ़ाने की अनुमति देगा । आने वाले समय में एन्ज्योग्राफी सहित हृदय रोग के सभी इलाजों का खर्च तथा रोगियों की संखया बढ़ती जाएगी और रुपये की आपूर्ति का रोना हमेशा बना रहेगा । रामराज्य से लेकर राजा भोज के राज्य तक सुराज के अनेक उदाहरणों से हमारे देश का इतिहास पटा पड़ा है। सुराज होने के प्रयास करने वाले राजा एवं उसके परामर्श दाताओं/मंत्रियों का विचार इस दिशा में यूं होना चाहिये कि, प्रयासों को बढ़ावा मिले जिससे या तो नए हृदय रोगी न बढ़े या उनके इलाज की कोई सस्ती पद्धति अपनाई जाए जो अपनाने से इतने ही बजट में अधिक लोगों को लाभ मिल सके। प्रजा का कार्य है, राजा की ज्ञानेन्द्रियाँ बन कर समस्या और उसके समाधान की अनुभूति राजा को कराए। जो जिस क्षेत्रा में अनुभव और ज्ञान रखता हो वह अपना अनुभव और ज्ञान राजा तक पहुंचाए और परामर्श दाता राजा को उन्हे अपनाने या न अपनाने का परामर्श दें। ऐसी ही एक अनुभूति इस लेख के माध्यम से मै राजा एवं उनके परामर्श दाताओं तक पहुंचाना चाहती हूँ जो जागरुक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
श्रद्धेय आचार्य श्री राम शर्मा से ले कर बाबा रामदेव जी तक अथवा उससे पूर्व भी अनेक ज्ञानी और परिश्रमी अध्ययनकर्ताओं ने स्वस्थ होने के प्राकृतिक उपायों पर गहन अध्ययन किये है। मिट्टी, पानी, धूप हवा के अतिरिक्त भी ऐसे पेड़ पौधों के औषधीय उपयोग जो भारत में अनेक स्थानों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं रोगों के उपचारों के लिये किये जाते रहे हैं। इसी का परिणाम है कि आज अधिकांश भारतीय इन औषधीय पेड़ पौधों के व्यावहारिक उपयोग में विश्वास रखते हैं। इन अधिकांश भारतीयों में वे नीतिनिर्धारक तथा उनके परिवार वाले भी सम्मिलित हैं, जो एलोपैथिक दवावों और मंहगे विदेश से आयात उपकरणों के लिये भारत जैसे गरीब और प्रगतिशील राष्ट्र की सीमित राशि स्वीकृत करते हैं। दुःख की बात है कि इतने सर्वविदित, सर्वमान्य और प्रमाणित वस्तुओं का उपयोग शासकीय स्तर पर करने में आज भी सकुचाहट है। शासन चाहे तो आज ही करोड़ों का बजट ऐसी दुकानों को सब्सीडी देने के लिये स्वीकृत कर सकता है जिनमें ताजे फल, लौकी, आँवला या गेंहू के जवारे के रस मिलते हों। ऐसे बाजारों और उत्पादन कम्पनियों के लिये एसईजेड (स्पेशल इकॉनानिक जोन) बनाने पर विचार किया जा सकता है जिनके माध्यम से कम से कम मूल्यों पर ये सभी वस्तुएं सहजता से उपलब्ध हों। यह चक्र यदि चल जाए तो अनेक बातें स्वयमेव सम्भव हो जाएंगी। लोगों की रुचि इस व्यवसाय में आने के लिये बढ़ेगी, जिसका सम्बन्ध सीधे खेती से है। बिजली, प्लास्टिक, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों एसी और प्रदूषण जैसी अनेक घातक चीजों से मानव और पर्यावरण दोनों को बचाया जा सकेगा। अधिक लोगों के खेती से जुड़ने का अर्थ है शारीरिक मेहनत को बढ़ावा देना । हृदय रोग होने की सम्भावनाएं ही इससे समाप्त होने लगेंगी। उपभोगवाद के दुश्चक्र से कर्मवाद के सुचक्र में छंलाग लगाना है, तो जन जागरण के साथ नेतृत्व जागरण भी आवश्यक है। पाठक जन इस बात को नेतृत्व तक पहुंचाने मे मेरा सहयोग करेंगे ऐसा विश्वास है।

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