शीत ऋतु
ऐसी हो दिनचर्या
मानव शरीर में वात पित्त कफ तीनों सही मात्रा में हो तो मानव स्वस्थ रहता है। यद्यपि स्वस्थ रहने का केवल यही मानदंड़ नहीं है, फिर भी यह एक महत्वपूर्ण पक्ष है। ऋतु के अनुसार शरीर में वात-पित्त-कफ कम या अधिक होते रहते हैं। अतः भोजन में परिवर्तन करके हमें इनकी मात्रा को सही करते रहना पड़ता है। प्रकृति हमें इस कार्य में सहायक है। जिस ऋतु में जो दोष बढ़ जाता है, प्रकृति उस दोष को कम करने वाले खाद्य पदार्थ और वनौषधियां उसी ऋतु में हमें प्रदान करती है। एक और महत्वपूर्ण पक्ष जानने योग्य है। शरीर में प्रत्येक दोष के प्रशम, प्रकोप और संचय का काल भी अलग-अलग होता है।
प्रशम- किसी दोष के शमन अर्थात् कम होने का काल। संचय- किसी दोष का शरीर में संचित होने का काल। प्रकोप- किसी दोष का शरीर में संचित होने के बाद अपने प्रभाव दिखाने का काल। यदि अगहन और पौष माह पर दृष्टि डाली जाए तो यह ऋतु वात के प्रकोप और कफ के संचय की होती है। अर्थात् आषाढ़ और श्रावण या 15 जुलाई से 15 सितम्बर के बीच हमारे शरीर में जिस वात का संचय होता है, 3 माह बाद अर्थात 15 नवम्बर से 15 जनवरी के बीच वह वात हमें परेशान करने लगता है। या यंू कहें कि उसका प्रकोप होता है। 15 नवम्बर से 15 जनवरी के बीच हमारे शरीर का कफ को संचित करने का काल है। अर्थात् इस ऋतु में की जाने वाली भूलों के कारण हम अपने शरीर में कफ जमा कर लेते हैं। जो आने वाले 3 माह बाद हमें कष्ट देने वाला है। वसन्त ऋतु अर्थात् 15 जनवरी से 15 फरवरी मंे यह संचित कफ धीरे-धीरे पिघलना प्रारम्भ होता है। ऐसी स्थिति में वमन जैसे शोधन कर्म करके कफ को निकाल देना चाहिए। अन्यथा कफ रोगों की उत्पत्ति होने लगती है। वर्षा काल में शरीर की पाचन शक्ति बिलकुल कम हो चुकी होती है, अतः शरद् ऋतु मंे वात और भी अधिक कष्ट देता है।
आयुर्वेद के अनुसार बताए गए छः रसों में से मधुर, तिक्त अर्थात् तीखा रस लेना इस ऋतु में अधिक योग्य होता है अतः गाजर, दूध के बने पदार्थ, हरीमिर्च, हरे साग, चुकन्दर, शलजम, आलू, गुड, तिल, उड़द, गेहूँ, गन्ने और गुड़ से बने पदार्थ, नया अन्न उत्तम केशर, गरम मसाले आदि खाद्य पदार्थ उचित हैं। प्रातः काल अर्थात् सुबह 10 बजे के आस-पास भोजन करना उचित होगा। इस ऋतु में तेल मालिश करके धूप में बैठना लाभदायक होता है। खूब परिश्रम भी करना चाहिये। यूँ तो योग ग्रन्थों में आग तापना योगियों के लिये वर्जित बताया गया है, किन्तु इस ऋतु में आग तापना सामान्य जन के लिये उचित बताया जाता है। स्निग्ध भोजन इस ऋतु में लाभदायक है। भारी तथा उष्ण वस्त्र जैसे सिल्क, कोसा, ऊनी कपड़े इस ऋतु में पहने जाने चाहिए। वसन्त आते आते ऋतु में होने वाले परिवर्तन के अनुरूप वमन, नेति आदि शोधन कर्म करना चाहिए। इस ऋतु में रूखा और कटु रस योग्य होता है। मूंग की दाल, जौ, साठी चावल आदि ऊष्ण व हल्का भोजन करें। शहद के साथ हर्रे का सेवन इस ऋतु में बड़ा लाभदायक होता है। इस ऋतु में प्रतिदिन उबटन लगाकर स्नान करना चाहिए और भरपूर व्यायाम करना चाहिए। गरिष्ठ भोजन, मधुर तथा अम्ल रस प्रधान खाद्य, दही आदि त्याग देना चाहिए। ओस में बैठना और दिन में सोना भी इस ऋतु में हानिकारक है।

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