रसाहार

   भारत विविध जैव सम्पदा  से भरपूर अनेक ऋतुओं का देश है। अन्य देशों में यदि गेंहू की 100 किस्में पायी जाती हैं तो भारत में 1000 प्रकार के गेंहू पाए जाते हैं, अकेले पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में पूरे वर्ष, प्रतिदिन अलग अलग-अलग किस्म के चावल से भगवान को भोग लगाने की परम्परा है। यानि 365 किस्म के चावल। आँकडों की मानें तो आयुर्वेदिक फार्माकोपिया में 500 से अधिक भारतीय वनौषधि पेड़ पौधों को सूचिबद्ध किया है। ऐसा नहीं कि केवल सूचिबद्ध पेड़ पौधे ही औषधीय उपयोग के होते हैं, बल्की आयुर्वेद के अनुसार धरती पर कोई भी ऐसा पेडपौधा नहीं जिसमें कोई औषधीय गुण न हो। रुकावट अज्ञानता की है। पुरातन कालीन आयुर्वेदिक ग्रन्थों में हजारों वनौषधियों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी विस्तार से उपलब्ध है। आगे भी अध्ययनकर्ताओं ने अनेक वनौषधिक पुस्तकों में इनके उपयोग,  उगाने के तरीके समय और पहचान के बारे में विस्तृत से वर्णन किये हैं। भाव प्रकाश निघंटु में प्रत्येक वनस्पति के संस्कृत नाम उनके गुणों और शरीर पर होने वाले प्रभावों का सुन्दर वर्णन मिलता है। वर्णन मे उपयोग में लाई गई तकनीकी शब्दावली के अर्थ भी इस पुस्तक में बहुत अच्छी तरह समझाए गए हैं। उदाहरण के लिये यदि सोंठ का गुण ’ग्राही’ बेहड़े का गुण ‘रेचक’ अमलतास का गुण ‘भेदक’ अथवा शहद का गुण ’योगवाही’ बताया गया है तो ‘ग्राही’ रेचक’ ‘भेदक’ ‘योगवाही’ इन शब्दों के अर्थ जाने बिना पाठकों के लिये उनके बारे में किये गए वर्णनों को समझना कठिन हो जाएगा। पुस्तक के पहले अध्याय में यही परिभाषाएँ दी गई हैं। इन्हे समझकर पाठक कोई भी वनस्पतियों के बारे में जानकारी देने वाली पुस्तक को अच्छी तरह आत्मसात कर सकते हैं।

     किसी भी वृक्ष के पांच मुख्य अंग होते हैं। जड, तना, पत्ती, फूल और फल। सामान्यतः ये पाँचों अथवा इनमें से कुछ औषधीय उपयोग में लाए जाते हैं। भारत की जनसंख्या एवं रोग तथा रोगियों की संख्या का विचार किया जाए तो यह स्पष्ट है कि किसी भी पेड़ पौधे की जड़ से बनने वाली औषधियों के प्रचार-प्रसार तथा उपयोग को व्यावहारिक नहीं माना जा सकता क्योंकी प्रकृति महीनों वर्षों में एक पेड़ को पाल-पोस कर बड़ा करेगी और हम उसे 1-2 या 10 व्यक्तियों के उपयोग मात्र में समाप्त कर दें तो यह जैव सम्पदा कब तक हमारा साथ देगी? फूलों, पत्तियों और फलों या कभी कभी तने का विचार किया जाए तो यह समझा जा सकता है कि ये सब ऋतु अनुसार नए खिलते और मुरझाते रहते है। इनका उपयोग कर लेने पर ही नए आने की सम्भावनाएं भी बढ़ जाती है। रसाहार चिकित्सा का यही सबसे मजबूत पक्ष है। पत्तियों, फूलों, फलों तथा कभी कभी तने के ताजे रस का उपयोग भिन्न-भिन्न रोगों के निवारण हेतु करने का प्रचलन बहुत पुराना है। किन्तु इनके उपयोग की अनेक सावधानियाँ और सूक्ष्म बातों का ज्ञान साथ ही इन्हे तैयार करने की सही विधी मात्रा और निषेध का सम्पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। स्वरस अथवा रसाहार चिकित्सा अपने आप में एक विस्तृत अकेला विषय है, जिसपर एक अलग से पाठ्यक्रम तैयार करना और उसे विश्व के लिये उपलब्ध कराने की एकमात्र जिम्मेदारी भारत पर है। विड़म्बना यह है कि भारत में सारी वनस्पतियाँ सहज उपलब्ध होते हुए भी अध्ययन, शोध एवं विश्वास की कमी होने के कारण इनके दैनिक उपयोग का प्रचलन अब तक लगातार कम होता आया है। आज की शहरी पीढ़ी बुखार के लिये कालमेघ के स्थान पर क्रोसिन, जल जाने पर ग्वारपाठे के स्थान पर बर्नोल, और चोट लग जाने पर हल्दी के स्थान पर डेटाल का उपयोग करती है। ऐसे में स्वयं की अज्ञानता पर शर्मिन्दा हो उससे मुक्ति के उपाय के रूप में पुरातन कालीन आयुर्वेदिक ग्रन्थों का अध्ययन करके शोध करना चाहिये और उनकी सच्चाई को साबित करना चाहिये। दवाओं पर निर्भरता का अर्थ है उनके दुष्प्रभावों को झेलना और भविष्य में अपने स्वास्थ्य को और भी अधिक बिगाड़ना है। इससे बेहतर है, कि रोग होने पर वनस्पति चिकित्सा करके आगे होने वाले रोगों की सम्भावनाओं से पहले ही मुक्त हो लिया जाए। साथ ही वर्तमान रोग को विकृत किये बिना कम से कम खर्च में स्वयं के संसाधन का उपयोग करते हुए ठीक किया जाए। न कोई गोली होगी न उसके प्लास्टिक के रैपर का प्रदूषण होगा न उसके साइड इफेक्ट होंगे और न ही अपने धन का एक तिहाई भाग दवा कम्पनियों बीमा कम्पनियों और अस्पतालों की जेब में जाएगा। प्रश्न यह है कि रसोपचार का ज्ञान कैसे प्राप्त हो, कैसे अध्ययन किया जाए और कैसे इनके उपयोग को व्यापक विश्वसनीय और व्यावहारिक बनाया जाए।

     पहला प्रश्न है ज्ञान प्राप्त करना और अध्ययन जन सामान्य व्यक्ति जिनका कोई आयुर्वेदिक ज्ञान पूर्व मे नहीं है उन्हे सबसे पहले भाव प्रकाश निघंटु अथवा द्रव्यगुण विज्ञान जैसी पुस्तकें पढ़ कर वनस्पतियों के गुणों एवं तकनीकी भाषा को समझ लेना चाहिये। इसके बाद वनस्पतियों के व्यावहारिक उपयोग से सम्बन्धी अनगिनत उपलब्ध पुस्तकों में से कुछ अच्छी अनुभवी चिकित्सा शास्त्रियों की पुस्तकें छाँट कर अपने रोग से सम्बन्धित जानकारियाँ एकत्र करें। मान लीजिये आप धूल की एलर्जी के शिकार हैं, तो आप पहले ऐसी वनस्पतियों को छाँट कर अलग करें, जो कफ नाशक गुण रखती हों। क्योंकी आपको एलर्जी से सर्दी जुकाम खाँसी और कफ होता है।  अब उन वनस्पतियों में से ऐसी वनस्पतियों छाँटे जिनकी पत्तियों/फूलों/फलों का उपयोग आपके काम का है। यह भी देख लें कि आपको वे ही वनस्पतियाँ चुनना है, जो आपके आस-पास उपलब्ध हो। फिर इन वनस्पतियों के उपयोगों को  4-5 या 8-10 पुस्तकों में ढूंढें। सभी में थोडे बहुत अन्तर से उपयोग की समानता हो तो बताई गई विधी से उनका उपयोग करें। अध्ययन और उपयोग के साथ व्यावहारिकता और विश्वास का प्रश्न भी जुड़ा है। जहाँ तक व्यावहारिकता का प्रश्न है, किसी भी पेड़ के पत्तों को मिक्सर में पीसकर ताजा रस आसानी से बना कर पिया जा सकता है। यह आपकी नैतिक जिम्मेदारी है, कि यदि आपने तुलसी के एक पौधें की पत्तियों का उपयोग स्वंय के लिये किया है तो कम से कम 5 पौधों को रोपकर उनका रक्षण पोषण करने की जिम्मेदारी तब तक आपकी है, जब तक वे पांच पौधे अन्य पांच लोगों के उपयोग के योग्य न हो जाएं। विश्वास का प्रश्न हल करना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। इसके लिये रसाहार के व्यावहारिक उपयोग करके लोगों पर होने वाले रसाहार सेवन के परिणामों का पहले दस्तावेजीकरण करके उन्हें प्रकाशित करके प्रसिद्ध किया जाना चाहिये। अधिकाधिक ऐसे सफल प्रयोगों के शोध पत्र प्रकाशित होने पर एक ओर तो वैज्ञानिक विश्व में वनौषधियों और रसाहार उपचार पर विश्वास बढ़ेगा तो दूसरी ओर शासन भी इनके उपयोग को बढ़ावा देने, इनको उगाने, बढ़ाने और इनके व्यावसायिक उपयोग को बढ़ावा देने के लिये बाध्य होगा। भारत में आज 12 एम्स अस्पताल, 460 मेडिकल कालेज और 35416 सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें एलोपैथी से उपचार होता है। इसकी तुलना में आयुर्वेद अस्पतालों की संख्या मात्र 2393 है। इनमें भी उपचार सीधे पेड़ पौधों से नहीं बल्की उनसे बनी औषधियों से होता है। सीधे पेड़-पौधों से उपचार को बढ़ावा देना जन-जन के लिये कल्याणकारी और स्वावलम्बन देने वाला तो होगा ही, साथ ही अधिकाधिक पेड़-पौधे लगाने की आवश्यकता बढ़ जाना इस धरती और पर्यावरण के लिये भी हितकर होगा।

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