वृक्षारोपण
टीम रसाहार ग्राम रसीदपुर रायसेन में वृक्षारोपण करते हुए।
Fasting is a scientific treatment method. Actually, people can eat fruits for nine days to purify and purify their body. But in case of disease, it can be made more beneficial by taking appropriate diet related to the disease. I am giving special diet for some diseases. During the Navaratra fasting, you can get maximum benefits of fasting by eating the same diet along with your regular fruits for the rest of the day.
Asthma, Thyroid- Pomegranate and Honey black pepper, Rock salt.
Diabetes – Apple, papaya, banana, sweet lime, orange.
Creatinine, Acidity- Soaking paddy or sorghum lye in water.
Cysts- Tulsi juice, honey, fenugreek, bathua, chaulai, Drumstick leaves soup or juice.
Obesity, weakness, indigestion- seasonal fruits, orange, Mausambi honey black pepper, Rock salt.
Skin diseases and cancer- pomegranate, beetroot
High blood pressure, cholesterol – all fresh fruits except pineapple, salt free soup of sweet neem, Drumstick leaves soup, cumin, celery
Excessive menstruation, anemia, weakness- Coconut Milk Mishri with Kokam
Delayed Menses- Alovera juice, Pineapple juice followed by Ragi roti
Colitis- Fresh curd, cumin, black pepper and honey rock salt.
Arthritis- Ragi roti and methi bhaji, cumin, celery soup.
उपवास एक वैज्ञानिक उपचार पद्धति है। वैसे तो लोग अपने शरीर को निर्मल और शुद्ध करने हेतु नवरात्र उपवास के नौ दिन फल खा कर रह सकते हैं। परंतु रोग की अवस्था में इसे अपने रोग से सम्बंधित उपयुक्त आहार ले कर अधिक लाभकारी बनाया जा सकता है। कुछ रोगों हेतु विशिष्ट आहार दे रही हूँ। आप अपने नियमित फलों के साथ बाकी दिन भर यही आहार ले कर उपवास का अधिकधिक लाभ ले सकते हैं।
अस्थमा, थाइराइड- अनार और शहद
मधुमेह – सेब, पपीता, केला, मौसमी, संतरा।
क्रियटिनीन, अम्लता- धान या ज्वार की लाई पानी में भिगोकर
गांठे- तुलसी रस, शहद, मेथी, बथुआ, चैलाई, सहिजन के सूप या रस
मोटापा, कमजोरी, अपचन- मौसमी, संतरा, शहद, सेंधा नमक काली मिर्च
त्वचा रोग व कैंसर- अनार, चुकन्दर
उच्च रक्तचाप, कोलेस्ट्रोल – अनन्नास को छोड़ कर सभी ताजे फल, मीठी नीम, सहिजन, जीरा, अजवाईन का नमक रहित सूप
अधिक मासिक, रक्तालपता, कमजोरी- नारियल दूध मिश्री कोकम
कम या देर से मासिक- खाली पेट ग्वारपाठा रस, रागी रोटी के आहार के बाद अनन्नास रस
कोलाइटिस- ताजा दही, जीरा, काली मिर्च और शहद सेंधा नमक काली मिर्च
गठिया- रागी की रोटी और मेथी भाजी, जीरा, अजवाईन का सूप
We prepare some raw powders to use it in off season of those herbs. We can provide them to people who can’t take fresh juices daily in any of our kendras. Some Gaushala products are there to sale. We provide some more home made preparations which supports Rasahara treatments. Here is the list.
वटजटा तेल 50 ग्राम ₹80
केशवर्धक चूर्ण 100 ग्राम ₹150
स्वदेशी दंत मंजन सौ ग्राम ₹80
चंदन उबटन सौ ग्राम ₹70
चंदन शरबत सौ ग्राम ₹100
जादू की मिट्टी 1 किलो ₹100
च्यवनप्राश ढाई सौ ग्राम ₹250
मेथी लड्डू ₹22 प्रति नग 1 किलो ₹ 1200
अर्जुन लड्डू 1 किलो ₹ 1000
गोंद लड्डू ₹25 प्रति नग 1 किलो ₹ 1500
शहद 1 किलो ₹300
शतावरी कल्प सौ ग्राम ₹60
मधुनाशक चूर्ण सौ ग्राम ₹70
अमृतधारा 50 ग्राम ₹70
पिप्पली चटनी 85 ग्राम ₹150
थाइरॉयड पोषक चूर्ण ( वर्षा शीत ऋतु ) 100 ग्राम ₹80
थाइरॉयड पोषक चूर्ण (ग्रीष्म शरद ऋतु ) 100 ग्राम ₹80
राल मलहम 85 ग्राम ₹150
अमलतास 100 ग्राम ₹100
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य चूर्ण भी हैं जो परामर्श के साथ दे दिए जाते हैं उनके नाम निम्नलिखित हैं- अनंतमूल, भुई आंवला, भृंगराज, गोखरू, पुनर्नवा, अपामार्ग, आंवला, चोपचीनी, मंजिष्ठ, सोंठ, गिलोय, अर्जुन छाल, शतावर, अश्वगंधा, मकोय, नीम, अडूसा, हल्दी, मुलेठी, बेलपत्र, कालमेघ, लोध्र, संजीरा, हरसिंगार, मधुनाशक, गुड़मार, थायरॉइड पोषक, पलाश पुष्प चूर्ण .
रसाहार
भारत विविध जैव सम्पदा से भरपूर अनेक ऋतुओं का देश है। अन्य देशों में यदि गेंहू की 100 किस्में पायी जाती हैं तो भारत में 1000 प्रकार के गेंहू पाए जाते हैं, अकेले पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में पूरे वर्ष, प्रतिदिन अलग अलग-अलग किस्म के चावल से भगवान को भोग लगाने की परम्परा है। यानि 365 किस्म के चावल। आँकडों की मानें तो आयुर्वेदिक फार्माकोपिया में 500 से अधिक भारतीय वनौषधि पेड़ पौधों को सूचिबद्ध किया है। ऐसा नहीं कि केवल सूचिबद्ध पेड़ पौधे ही औषधीय उपयोग के होते हैं, बल्की आयुर्वेद के अनुसार धरती पर कोई भी ऐसा पेडपौधा नहीं जिसमें कोई औषधीय गुण न हो। रुकावट अज्ञानता की है। पुरातन कालीन आयुर्वेदिक ग्रन्थों में हजारों वनौषधियों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी विस्तार से उपलब्ध है। आगे भी अध्ययनकर्ताओं ने अनेक वनौषधिक पुस्तकों में इनके उपयोग, उगाने के तरीके समय और पहचान के बारे में विस्तृत से वर्णन किये हैं। भाव प्रकाश निघंटु में प्रत्येक वनस्पति के संस्कृत नाम उनके गुणों और शरीर पर होने वाले प्रभावों का सुन्दर वर्णन मिलता है। वर्णन मे उपयोग में लाई गई तकनीकी शब्दावली के अर्थ भी इस पुस्तक में बहुत अच्छी तरह समझाए गए हैं। उदाहरण के लिये यदि सोंठ का गुण ’ग्राही’ बेहड़े का गुण ‘रेचक’ अमलतास का गुण ‘भेदक’ अथवा शहद का गुण ’योगवाही’ बताया गया है तो ‘ग्राही’ रेचक’ ‘भेदक’ ‘योगवाही’ इन शब्दों के अर्थ जाने बिना पाठकों के लिये उनके बारे में किये गए वर्णनों को समझना कठिन हो जाएगा। पुस्तक के पहले अध्याय में यही परिभाषाएँ दी गई हैं। इन्हे समझकर पाठक कोई भी वनस्पतियों के बारे में जानकारी देने वाली पुस्तक को अच्छी तरह आत्मसात कर सकते हैं।
किसी भी वृक्ष के पांच मुख्य अंग होते हैं। जड, तना, पत्ती, फूल और फल। सामान्यतः ये पाँचों अथवा इनमें से कुछ औषधीय उपयोग में लाए जाते हैं। भारत की जनसंख्या एवं रोग तथा रोगियों की संख्या का विचार किया जाए तो यह स्पष्ट है कि किसी भी पेड़ पौधे की जड़ से बनने वाली औषधियों के प्रचार-प्रसार तथा उपयोग को व्यावहारिक नहीं माना जा सकता क्योंकी प्रकृति महीनों वर्षों में एक पेड़ को पाल-पोस कर बड़ा करेगी और हम उसे 1-2 या 10 व्यक्तियों के उपयोग मात्र में समाप्त कर दें तो यह जैव सम्पदा कब तक हमारा साथ देगी? फूलों, पत्तियों और फलों या कभी कभी तने का विचार किया जाए तो यह समझा जा सकता है कि ये सब ऋतु अनुसार नए खिलते और मुरझाते रहते है। इनका उपयोग कर लेने पर ही नए आने की सम्भावनाएं भी बढ़ जाती है। रसाहार चिकित्सा का यही सबसे मजबूत पक्ष है। पत्तियों, फूलों, फलों तथा कभी कभी तने के ताजे रस का उपयोग भिन्न-भिन्न रोगों के निवारण हेतु करने का प्रचलन बहुत पुराना है। किन्तु इनके उपयोग की अनेक सावधानियाँ और सूक्ष्म बातों का ज्ञान साथ ही इन्हे तैयार करने की सही विधी मात्रा और निषेध का सम्पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। स्वरस अथवा रसाहार चिकित्सा अपने आप में एक विस्तृत अकेला विषय है, जिसपर एक अलग से पाठ्यक्रम तैयार करना और उसे विश्व के लिये उपलब्ध कराने की एकमात्र जिम्मेदारी भारत पर है। विड़म्बना यह है कि भारत में सारी वनस्पतियाँ सहज उपलब्ध होते हुए भी अध्ययन, शोध एवं विश्वास की कमी होने के कारण इनके दैनिक उपयोग का प्रचलन अब तक लगातार कम होता आया है। आज की शहरी पीढ़ी बुखार के लिये कालमेघ के स्थान पर क्रोसिन, जल जाने पर ग्वारपाठे के स्थान पर बर्नोल, और चोट लग जाने पर हल्दी के स्थान पर डेटाल का उपयोग करती है। ऐसे में स्वयं की अज्ञानता पर शर्मिन्दा हो उससे मुक्ति के उपाय के रूप में पुरातन कालीन आयुर्वेदिक ग्रन्थों का अध्ययन करके शोध करना चाहिये और उनकी सच्चाई को साबित करना चाहिये। दवाओं पर निर्भरता का अर्थ है उनके दुष्प्रभावों को झेलना और भविष्य में अपने स्वास्थ्य को और भी अधिक बिगाड़ना है। इससे बेहतर है, कि रोग होने पर वनस्पति चिकित्सा करके आगे होने वाले रोगों की सम्भावनाओं से पहले ही मुक्त हो लिया जाए। साथ ही वर्तमान रोग को विकृत किये बिना कम से कम खर्च में स्वयं के संसाधन का उपयोग करते हुए ठीक किया जाए। न कोई गोली होगी न उसके प्लास्टिक के रैपर का प्रदूषण होगा न उसके साइड इफेक्ट होंगे और न ही अपने धन का एक तिहाई भाग दवा कम्पनियों बीमा कम्पनियों और अस्पतालों की जेब में जाएगा। प्रश्न यह है कि रसोपचार का ज्ञान कैसे प्राप्त हो, कैसे अध्ययन किया जाए और कैसे इनके उपयोग को व्यापक विश्वसनीय और व्यावहारिक बनाया जाए।
पहला प्रश्न है ज्ञान प्राप्त करना और अध्ययन जन सामान्य व्यक्ति जिनका कोई आयुर्वेदिक ज्ञान पूर्व मे नहीं है उन्हे सबसे पहले भाव प्रकाश निघंटु अथवा द्रव्यगुण विज्ञान जैसी पुस्तकें पढ़ कर वनस्पतियों के गुणों एवं तकनीकी भाषा को समझ लेना चाहिये। इसके बाद वनस्पतियों के व्यावहारिक उपयोग से सम्बन्धी अनगिनत उपलब्ध पुस्तकों में से कुछ अच्छी अनुभवी चिकित्सा शास्त्रियों की पुस्तकें छाँट कर अपने रोग से सम्बन्धित जानकारियाँ एकत्र करें। मान लीजिये आप धूल की एलर्जी के शिकार हैं, तो आप पहले ऐसी वनस्पतियों को छाँट कर अलग करें, जो कफ नाशक गुण रखती हों। क्योंकी आपको एलर्जी से सर्दी जुकाम खाँसी और कफ होता है। अब उन वनस्पतियों में से ऐसी वनस्पतियों छाँटे जिनकी पत्तियों/फूलों/फलों का उपयोग आपके काम का है। यह भी देख लें कि आपको वे ही वनस्पतियाँ चुनना है, जो आपके आस-पास उपलब्ध हो। फिर इन वनस्पतियों के उपयोगों को 4-5 या 8-10 पुस्तकों में ढूंढें। सभी में थोडे बहुत अन्तर से उपयोग की समानता हो तो बताई गई विधी से उनका उपयोग करें। अध्ययन और उपयोग के साथ व्यावहारिकता और विश्वास का प्रश्न भी जुड़ा है। जहाँ तक व्यावहारिकता का प्रश्न है, किसी भी पेड़ के पत्तों को मिक्सर में पीसकर ताजा रस आसानी से बना कर पिया जा सकता है। यह आपकी नैतिक जिम्मेदारी है, कि यदि आपने तुलसी के एक पौधें की पत्तियों का उपयोग स्वंय के लिये किया है तो कम से कम 5 पौधों को रोपकर उनका रक्षण पोषण करने की जिम्मेदारी तब तक आपकी है, जब तक वे पांच पौधे अन्य पांच लोगों के उपयोग के योग्य न हो जाएं। विश्वास का प्रश्न हल करना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। इसके लिये रसाहार के व्यावहारिक उपयोग करके लोगों पर होने वाले रसाहार सेवन के परिणामों का पहले दस्तावेजीकरण करके उन्हें प्रकाशित करके प्रसिद्ध किया जाना चाहिये। अधिकाधिक ऐसे सफल प्रयोगों के शोध पत्र प्रकाशित होने पर एक ओर तो वैज्ञानिक विश्व में वनौषधियों और रसाहार उपचार पर विश्वास बढ़ेगा तो दूसरी ओर शासन भी इनके उपयोग को बढ़ावा देने, इनको उगाने, बढ़ाने और इनके व्यावसायिक उपयोग को बढ़ावा देने के लिये बाध्य होगा। भारत में आज 12 एम्स अस्पताल, 460 मेडिकल कालेज और 35416 सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें एलोपैथी से उपचार होता है। इसकी तुलना में आयुर्वेद अस्पतालों की संख्या मात्र 2393 है। इनमें भी उपचार सीधे पेड़ पौधों से नहीं बल्की उनसे बनी औषधियों से होता है। सीधे पेड़-पौधों से उपचार को बढ़ावा देना जन-जन के लिये कल्याणकारी और स्वावलम्बन देने वाला तो होगा ही, साथ ही अधिकाधिक पेड़-पौधे लगाने की आवश्यकता बढ़ जाना इस धरती और पर्यावरण के लिये भी हितकर होगा।
अनुचित रसाहार एवं खाद्य पदार्थ
यूँ तो सभी रस अच्छे, पोषक और शक्ति वर्धक होते हैं इसलिये ऐसा नहीं है कि किसी रोग विशेष में कोई रस अत्यंत घातक हो जाए। फिर भी आयुर्वेदानुसार विभिन्न कारणों से कभी-कभी कुछ रस लेना अनुचित भी माना जाता है।
कुछ खाद्य पदार्थ भी आयुर्वेदानुसार अनुचित माने जाते हैं। ये निम्न लिखित हैं।
1 पर्णबीज के पत्तों का अधिक मात्रा में सेवन करने से नशा हो जाता है।
2 पवांड़ के बीज आँतो के लिये हानिकारक होते हैं। अतः इनका उपयोग करते समय नियमित रूप से दही, दूध अथवा अर्क गुलाब का सेवन करना चाहिये।
3 पिप्पली का उपयोग करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि पुरानी और सूखी पिप्पली के औषधीय लाभ अधिक होते हैं। साथ ही बाजार में दो प्रकार पिप्पली मिलती है। बारीक और छोटे आकार की पिप्पली अधिक गुणकारी होती है।
4 अधिक समय तक गर्भवती स्त्री को शर्बत आदि के रूप में पोदीना देने से गर्भपात का डर रहता है।
5 पोदीना का अत्यधिक सेवन आंतो और किडनी के लिये हानिकारक हो सकता है ऐसे में मुलेठी के साथ देना चाहिए।
6 राई का लेप हमेशा ठंडे पानी में बनाना चाहिये क्योंकी उसके गुण ठन्डे पानी में ही उतरते हैं।
7 राई के लेप में हमेषा फुन्सी फफोले उठने का भय रहता है। अतः यह लेप लगाने से पूर्व या तो घी या नारियल तेल शरीर पर लगा लें, अथवा महीन कपड़े में रख कर उस कपड़े को ही शरीर के अंगों पर रखें।
8 राई का खाने के लिये प्रयोग करना हो तो उसका छिलका उतार कर ही प्रयोग करें। इसके लिये राई को पानी में थोडी देर भिगो कर छिलका अलग कर लें बाकी बची राई का पीस कर बारीक आटा बना कर बोतल में भर कर सुरक्षित रख लें।
9 मस्तिष्क, आँखां आदि शरीर के कोमल अंगों पर राई का प्रयोग न करें।
10 बच्चों के लिये एक भाग राई चूर्ण के साथ 10-15 भाग अलसी चूर्ण लें।
11 गर्म प्रकृति वालों को सौंफ का सेवन धनिया अथवा चन्दन के साथ करना चाहिये।
12 अलसी का सेवन दृष्टि तथा अंडकोष के लिये हानिकारक है। किन्तु अलसी का सेवन धनिया और शहद के साथ करने से इस हानि से बचा जा सकता है।
13 बथुए को आवश्यकता से अधिक खाने पर वात विकार होने की सम्भावना रहती है। अतः इसमें गरम मसाला डाल कर खाना चाहिये।
14 दूर्वा वीर्य को कम करके काम शक्ति को घटाता है।
15 दूधी का रस पीने से कभी-कभी आमाशय के भीतर कुछ भाग में जलन होती है और जम्हाई आती है। ऐसा कुछ होने पर इसे भोजन के बाद कुछ अधिक पानी मिला कर लेना चाहिये।
16 मधुमेह, अत्यधिक सर्दी-जुकाम, कफ अथवा श्वास के रोगियों को गन्ने के रस का सेवन नहीं करना चाहिये। बुखार की अवस्था में, अत्यन्त कमजोर पाचन तन्त्र वालों को, त्वचा अथवा कृमि रोग वालों को अथवा बहुत छोटे बच्चों को भी गन्ने के रस का सेवन हितकर नहीं है।
17 वसन्त ऋतु में गुड़ का सेवन नहीं करना चाहिये। चर्मरोग, कृमि, दाँतों के रोग, आँखों के रोग, मेदवृद्धि, ज्वर आदि में गुड़ का सेवन उचित नहीं। मधुमेह के रोगी को षक्कर अथवा गुड़ में से कोई एक चुनना हो तो वे गुड़ को चुन सकते हैं। फल, उड़द या दूध के साथ गुड़ नहीं खाना चाहिये।
18 ग्वारपाठे का सेवन करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि बवासीर रोग की अवस्था में यदि रक्त निकल रहा हो तो, ग्वारपाठा के सेवन से मलाशय और मलद्वार की रक्त नलिकाओं में रक्त संचार बढ़ जाता है और रक्त अधिक आने लगता है। अतः उस समय ग्वारपाठे का सेवन रोक देना चाहिये बदले में ऊपर से लेप लगाना चाहिये।
19 ग्वारपाठा आर्तव जनक और गर्भ शोधक होने के कारण गर्भावस्था में इसका सेवन नहीं करना चाहिये।
20 त्वचा रोग, कफ रोग तथा मासिक स्त्राव के समय इमली का सेवन नहीं करना चाहिये।
21 आयुर्वेद के अनुसार इमली की छाया प्रसूता या रोगी के लिये हानिकारक मानी गई है। इसका कारण यह कि इमली रक्त को दूषित करने वाली व कफ को बढ़ाने वाली होती है। इसके अधिक मात्र में सेवन से खटाई और ठंडाई के कारण जोड़ जकड़ जाते है। खांसी या दमा का उपद्रव होता है।
22 विद्रधि अर्थात फोड़े और अधिक पक जाते है। कोढ़ और किडनी सम्बन्धी उन रोगों जिनमें किडनी से सही तरीके से विजातीय पदार्थों का निष्कासन न होता हो, उनमें इमली का उपयोग हानिकारक है।
23 कच्ची इमली हानिकारक होती है। अतः सदैव पकी इमली का ही औषधीय उपयोग किया जाता है।
24 इमली का उपयोग पेट के अन्दर लेने के लिये कभी भी दूध के साथ नहीं करना चाहिये।
25 जामुन खाली पेट खा लेने से वात की वृद्धि या अफरा हो जाता है।
26 जायफल की अधिक मात्रा लेना हानिकारक है। इससे मस्तिष्क पर मादक प्रभाव पड़ता है। सिर चकराता है, प्रलाप मूढ़ता की स्थिति उत्पन्न होती है।
27 जायफल का 15 ग्राम चूर्ण एक साथ ले लेने पर भ्रम और बेहोशी आने लगती है।
28 बार-बार अधिक मात्रा में जायफल लेना पुरूषों के लिये हानिकारक हो सकता है।
29 उच्च रक्तचाप की अवस्था में अथवा ज्वर या दाह होने पर जायफल, जावित्री या उसके तेलों का उपयोग नहीं करना चाहिए।
30 कालीमिर्च का अधिक मात्रा में सेवन करने से पेट आँतो मूत्राशय व मूत्रमार्ग पर जलन हो सकती है। ऐसा कुछ होता हो तो कालीमिर्च का सेवन न करें।
31 कपूर का सेवन करते समय मात्रा का बहुत ध्यान रखना चाहिये। कपूर का अधिक सेवन करने से पहले स्नायुमंडल एवं वात नाड़ियों में उत्तेजना अत्यधिक बढ़ती है। फिर शैथिल्य आलस्य और अत्यन्त थकावट आती है। मुँह और गले में दाह युक्त वेदना के साथ जी मचलता है। कभी-कभी उल्टी चक्कर आँखों में जलन आँखों का फैल जाना, बेहोशी (प्रायः अन्तिम लक्षण) हाथ-पांव ठंडे होना, सर्वांग में झुनझुनी नाड़ी क्षीण होना, कमर में पीड़ा, मूत्रावरोध, हाथों की माँसपेशियों में जकड़न, ओंठ काले पड़ना श्वास लेने व छोड़ने में कष्ट तथा मूर्च्छा और फिर मृत्यु तक हो सकती है। उक्त प्रकार की मृत्यु लाखों में एक ही हो सकती है अन्यथा यथायोग्य उपचार से रोगी शीघ्र सुधार जाता है।
32 कपूर की अधिकता अर्थात बड़ा के लिये 10 ग्राम से अधिक और छोटे बच्चों के लिये 15
ग्राम से अधिक मात्रा घातक होती है। इसके उपचार हेतु पहले वमन करा देना ठीक रहता है। वमन तब तक कराते हैं जब तक वमन में कपूर की गन्ध आना बन्द न हो जाए। बीच-बीच में 1-1 रत्ती शुद्ध भुनी हुई हींग खिलाते रहते हैं। सिर पर बर्फ रखना चाहिये। उत्तेजना बढ़ाने के लिये काली चाय या कॉफी देना लाभदायक होता है। उत्तेजना बढ़ाने के लिये छोटी पिप्पली में खांड मिला कर खिलाने तथा ऊपर से खूब पान खिलाने से भी लाभ मिलता है।
33 इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि केले के अत्यधिक सेवन से पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। कफकारक और शीतल होने के कारण केला, निमोनिया अस्थमा अथवा किसी अन्य कफ जनित रोग में नहीं दिया जाना चाहिये।
34 खजूर अग्निमांद्य करने वाला होता है। अतः रोगी का अग्निबल देख कर ही उसे उचित मात्रा में खजूर देना चाहिये। एक बार में सीमित मात्रा में ही खजूर का सेवन करना चाहिये । अत्यधिक खजूर एक साथ खा लेने से गुदाद्वार के अवयव फूल जाते हैं।
35 खरबूजा खाने के पूर्व कुछ देर शीत जल में भिगो कर रखना चाहिये। भोजन के कुछ देर बाद ही इसका सेवन करना चाहिये। खाली पेट या भोजन के पूर्व खाने से शरीर में पित्त प्रकोप की सम्भावनाएं रहती हैं। कभी-कभी पित्तज्वर भी हो जाता है। इसके खाने के बाद दुग्ध सेवन करना भी हानिकारक होता है। इससे हैजा या अतिसार हो सकता है। अतः हैजा फैला हो तो खरबूज नहीं खाना चाहिये।
36 प्रतिदिन दिये जाने वाले लहसुन की मात्रा का निर्णय आयु के अनुसार होना चाहिए। 3 वर्ष या उससे कम आयु के बच्चों को 1-2 कली प्रतिदिन अत्यधिक छोटे बच्चों को उतना भी नहीं, 16 वर्ष से अधिक आयु के अथवा वयस्क व्यक्तियों को 3 से 5 लहसुन प्रतिदिन दिये जा सकते हैं। शक्तिशाली ऊंचे पूरे लोगों को इससे अधिक भी दिये जा सकते हैं।
37 मद्य, माँस, खटाई ये लहसुन के साथ मेल वाले पदार्थ हैं। जबकि व्यायाम, धूप, क्रोध, अत्यधिक जल, दूध और गुड़ इन पदार्थो को लहसुन खाने वालों को छोड़ देना चाहिए। योग ग्रन्थों में लहसुन को तमोगुण बढ़ाने वाला खाद्य माना गया है।
38 चरक सूत्र (26.19.22) के अनुसार काकमाची मधु व मरणाय अर्थात मकोय और मधु मिला कर लेने से विष हो कर मरण की आशंका रहती है। आयुर्वेद की इस जानी मानी हस्ती के द्वारा लिखे गए इस सूत्र का ध्यान पाठक जन अवश्य रखें। इसी तरह चरक के ही मतानुसार मकोय का बासी शाक खाना निषेध है।
Common Name of Herb Latin Script | Botanical Name of Herb |
Adusa | Adhatoda Vasica |
Aloe Vera | Barbadensis Mill. |
Amaltas | Cassia fistula |
Amla | Emblica Officinalis Gaertn |
Apamarga | Achyranthes aspera |
Asparagus | Asparagus racemosus |
Beetroot | Beta vulgaris |
Belpatra | Aegle Marmelos |
Belphal | Aegle Marmelos |
Bhui Amla | Phyllanthus Niruri |
Bringaraja | Eclipta prostrata |
Carrot | Daucus carota subsp. sativus |
Coconut milk | Cocos nucifera |
Fenugreek | Trigonella foenum-graecum |
Giloye | Tinospora Cordifolia |
Ginger | Zingiber officinale |
Gokhru | Tribulus Terrestris |
Goolar | Ficus racemosa |
Green grass | Poaceae |
Gudmar | Gymnema Sylvestris |
Harsingar | Nyctanthes arbor-tristis |
Kalamegha | Andrographis paniculata |
Karanj | Millettia pinnata |
Lemongrass | Cymbopogon |
Makoy | Solanum nigrum |
Marigold flower | Tagetes |
Mentha | Mentha piperita |
Mithi Neem | Murraya koenigii |
Mulethi, Liquorice | Glycyrrhiza glabra |
Neem | Azadirachta Indica |
Panvad | Cassia tora |
Parnabeej | Kalanchoe Pinnata |
Peepal | Ficus religiosa |
Punarnava | Boerhavia Diffusa |
Rose flower | Rosa |
Sabja | Ocimum basilicum |
Sharpunkha | Tephrosia purpurea |
Sheesham | Dalbergia sissoo |
Termaric | Curcuma Longa |
Tesoo or Palash | Butea monosperma |
Tulsi | Ocimum Tenuiflorum |
Wheatgrass | Triticum Aestivum |
Measurements of Rasahara to be used-
Name of herb | Measurement | Added water (ml) | Maximum doses per day |
Alovera | 60 grams pulp | 0 | 2 |
Haldi | 50 grams | 0 | 2 |
Giloey | 15 gram stem | 50 | 3 |
Wheatgrass 1/2 | 25 grams | 50 | 200 grams |
Tulsi | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Belpatra | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Belfal | 50 grams pulp | 100 | 2 |
Adusa | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Shisham | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Peepal | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Bhringaraja | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Gudmar | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
punarnava | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Papaya | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Karipatta | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Parnabeej | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Neem | 4 grams fresh leaves | 50 | 3 |
Amaltas | 8 grams extract | 50 | 16 gm |
क्रमाँक | वनस्पति का नाम | वजन में मात्रा | मिलाए जाने वाले जल की मात्रा | एक व्यक्ति के लिए एक समय की अधिकतम मात्रा |
1 | ग्वारपाठा | 50 ग्राम गूदा | 0 | दिन में दो बार |
2 | हल्दी | 50 ग्राम | 0 | दिन में दो बार |
3 | गिलोय | 15 ग्राम तना | 50 मिलीलीटर | दिन में तीन बार |
4 | गेहूं के जवारे 1/2 | 25 ग्राम घास | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
5 | गेहूं के जवारे | 50 ग्राम | 100 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
6 | तुलसी | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में बार |
7 | बेलपत्र | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
8 | बेलफल | 4 ग्राम गूदा | 100 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
9 | अडूसा | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
10 | शीशम | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
11 | पीपल | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
12 | भृंगराज | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
13 | गुड़मार | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
14 | पुनर्नवा | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
15 | पपीता पत्र | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
16 | मीठी नीम | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
17 | पर्णबीज | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
18 | कड़वी नीम | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
19 | अमलतास | 8 ग्राम गूदा | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
20 | आंवला | 50 गूदा | 0 | दिन में एक बार |
21 | हरसिंगार पत्र | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
22 | सहीजन पत्र | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
23 | पान (नागर बेल) | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
24 | सब्जा | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में दो बार |
25 | कालमेघ | 4 ग्राम ताज़े पत्र | 50 मिलीलीटर | दिन में तीन बार |
Ayurveda says, freshly prepared herbal juices are the best form of taking herbs as a treatment.
Plants provide Millions of leaves to us. Leaves can regrow. Blending and preparing juices of leaves of various plants is easy process.
The second best to use as treatment is to use dried powder of any herb by socking it in water first and then churning. These powders are needed in off season of those plants.
These juices are know as Rasahara. We provide both, fresh herbal juices and self made powders or powdered juices with proper consultancy to take them correctly.